हिंदी फिल्मों के मशहूर लेखक,निर्देशक और रंगकर्मी सागर सरहदी का 21 मार्च 2021 को मुंबई में निधन हो गया। उनकी यादों को समेटती चंद पंक्तियां…
हर बात याद आएगी …
मुंबई आने के बाद टीवी और फिल्मों पर लिखना मैंने आरंभ कर दिया था। साहित्यिक-सांस्कृतिक गोष्ठियों में आना-जाना होता था। ऐसी ही एक गोष्ठी में सागर सरहदी से पहली मुलाकात हुई थी। पहली-दूसरी मुलाकातों के बाद ही अपनी सोच, विचारधारा और बेबाक टिप्पणियों से मेरा उनसे लगाव हो गया था। मालूम था कि उन्होंने ‘बाज़ार’ का निर्देशन किया था। साथ ही यशराज फिल्म्स की कुछ मशहूर फिल्मों के लेखन से उनका नाम जुड़ा हुआ था। इन सारे प्रभावों से अलग और स्थाई प्रभाव टाइम्स ऑफ इंडिया में उन पर छपे एक फीचर से हुआ। संडे रिव्यू के पेज पर उनकी रंगीन तस्वीर छपी थी। फोटोग्राफर ने तस्वीर के लिए ऐसा एंगल चुना था कि उनकी किताबों की अलमारी उभर कर उनका विशिष्ट परिचय दे रही थी। फीचर में उनके लाइब्रेरी का ज़िक्र था। यह भी लिखा था कि नसीरुद्दीन शाह आदि कलाकार उनसे किताबें मांग कर पढ़ा करते हैं। उनमें से कुछ ने उनकी किताबें नहीं लौटाईं। उस तस्वीर का ही असर था कि मैं खोजते-खाजते कोलीवाड़ा स्थित उनके अपार्टमेंट में पहुंच गया था। अनुमान के अनुसार चारों तरफ किताबों का अंबार था। कुछ किताबें उनके आसपास फर्श, कुर्सी और इधर-उधर अकेली या समूह में बैठी थीं। कमरे की बेतरतीबी सागर सरहदी के मिजाज़ का आईना थी। यह बेतरतीबी उनके व्यक्तित्व में भी थी। किसी भी व्यक्ति की यह सधी-सुलझी बेतरतीबी मुझे अच्छी लगती है। आकर्षित करती है। यकीन होता है कि वह व्यक्ति सब कुछ उलट-पुलट कर अपनी नज़रों के सामने रखना चाहता है।
करोगे याद तो…
सागर सरहदी की कमीज़ या कुर्ते के ऊपरी बटन हमेशा खुले रहते थे। उनके व्यक्तित्व में भी औपचारिकता के बटन नहीं लगे थे। वह बड़े बिंदास अंदाज में मिलते और भींचते थे। गालियों के साथ उनका संबोधन आत्मीयता का परिचय था। गाली से ही वे दोस्ती गांठते थे। पिछले कुछ सालों में योजना के मुताबिक फिल्म न बना पाने की दिक्कत के बावजूद कभी किसी के प्रति उनमें कटुता नहीं दिखी। पूछने पर एक लापरवाह प्रतिक्रिया मिलती थी। अपने बेफ़िक्र स्वभाव की वजह से वे किसी से फ़िक्र की उम्मीद नहीं रखते थे। कोई घटना या किस्सा सुनाते समय भी उसमें उनका ‘मैं’ लगभग अनुपस्थित रहता था। कभी अपना ज़िक्र भी करते थे तो वह सहज और मामूली जान पड़ता था। उनकी बातचीत और बहसबाज़ी में उनकी मेधा ज़ाहिर होती थी। अनुभव और ज्ञान से सिंचित उनकी संवेदना समाज के सभी वंचितों के लिए थी। मुंबई के किसी भी प्रदर्शन, जुलूस और गोष्ठियों में झोला लटकाए मोहक मुस्कान के साथ वह हाज़िर रहते थे। मैंने कभी नहीं पाया कि उन्हें कहीं लौटने या पहुंचने की जल्दबाजी रहती हो। एक सुकून रहा उनकी जिंदगी में… खोने और पाने की जद्दोजहद से वे फ़ारिग हो चुके थे।
ये चांद बीते ज़मानों का आईना होगा…
कुछ सालों पहले हुई आखिरी मुलाकात में उन्होंने बताया था कि पाकिस्तान स्थित उनके पैतृक गांव बफा से बुलावा आया है। उस गांव का एक युवक उन्हें व्यक्तिगत निमंत्रण देने मुंबई आया था। वे इस निमंत्रण को लेकर बहुत उत्साहित थे। अपनी बिगड़ती तबियत और बिगड़ चुकी आर्थिक स्थिति में भी वे पाकिस्तान जाने की तैयारी कर रहे थे। अपने पैतृक गांव से उजड़ने और कश्मीर होते हुए दिल्ली आकर बसने और फिर मुंबई में रमने के बावजूद उन्हें अपने गांव की नदी, पहाड़ी, दोस्त और बचपन की यादें बेचैन करती थीं। उनका मानना था कि कोई पेड़ उखाड़ कर कहीं और लगा दो तो उसका हरापन कम हो जाता है। इसी बेचैनी में उन्होंने लिखना शुरू किया। दिल्ली में मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे बड़े भाई के पास मुंबई आ गए थे। मुंबई में बड़े भाई की कपड़ों की दुकान थी। वहां वे बेमन से भाई की मदद के लिए बैठा करते थे, लेकिन ध्यान पढ़ने और लिखने में लगा रहता था। एक बार उनकी इस बेसुध मौजूदगी में एक ग्राहक कपड़ों की थान लेकर चंपत हो गया।
खालसा कॉलेज में नाम लिखवा दिया गया था। वहां गुलज़ार उनके सीनियर थे। गुलज़ार की बातों और शेर-ओ-शायरी से प्रभावित होकर सागर सरहदी ने भी गंभीरता से पढ़ाई शुरू की। आवारगी थोड़ी कम हुई और ख़ुद को निखारने का प्रयास जारी रहा। इसी कोशिश में अंग्रेज़ी सीखने के लिए उन्होंने सेंट जेवियर्स कॉलेज में दाखिला लिया। ख़याल था कि विश्व साहित्य पढ़ने के लिए अंग्रेज़ी जानना ज़रूरी है। पिता और भाई की बुरी आर्थिक स्थिति की वजह से सागर सरहदी ने पढ़ाई के दौरान कुछ नौकरियां कीं। कभी टैक्सी चलाना चाहा तो कभी टाइपिंग की और फिर भाई की दुकान में भी बैठे जहां किसी ग्राहक द्वारा चोरी की घटना हुई थी। हर काम में वे अनाड़ी साबित हुए।
उदास राह कोई दास्तां सुनाएगी…
अपने गुस्से और उदास बेचैनी को वे काग़ज़ पर उतार दिया करते थे। एक बार किसी दोस्त ने उनकी लिखी चीजें पढ़ीं और कहा कि तुम्हें लिखते रहना चाहिए। तुम्हारे अंदर एक आग है। इसकी लपटों को बुझने ना दो। संयोग से तभी वे रंगकर्मियों और लेखकों के संपर्क में आये। ग्रांट रोड स्थित लाल झंडा हॉल में आयोजित हफ्तावार बैठकों में शामिल होने लगे। यहां शेर-ओ- शायरी और बहसबाज़ी में उनकी मुलाकात कैफ़ी आज़मी, इस्मत चुगताई, राजेंद्र सिंह बेदी, कृष्ण चंदर, ख्वाजा अहमद अब्बास, सरदार जाफ़री आदि से हुई। संगत से गुण आया। सागर सरहदी के लेखन में निखार आया। वैचारिकता के साथ ही उन्होंने समाज के निचले तबके के प्रति हमदर्दी और करुणा का पाठ भी पढ़ा। सागर सरहदी अपने लेखन के लिए सज्जाद ज़हीर और कैफ़ी आज़मी के मार्गदर्शन का हमेशा उल्लेख करते थे।
भटकते अब्र में चेहरा कोई बना होगा…
लेखन और एक्टिविज्म के साथ आजीविका की तलाश में सागर सरहदी ने फिल्मों की तरफ रुख किया। उनकी पहली फिल्म ‘पत्नी’ (1970) मानी जाती है। मुझे आज ही जानकारी मिली कि फिल्म लेखन का पहला अभ्यास उन्होंने वसंत जोगलेकर की फिल्म ‘प्रार्थना’ (1969) के लिए किया था। इस फिल्म में अज़ीज मिर्ज़ा बतौर एक्टर आए थे। इस फिल्म के कलाकार जुगनू के मुताबिक सागर सरहदी इस फिल्म के घोस्ट राइटर थे। उन्होंने बताया कि हम दोनों एक ही कमरे में ठहरे थे। जाहिर है उनकी सूचना से इत्तेफ़ाक किया जा सकता है। बाद में सागर सरहदी ने बासु भट्टाचार्य की फिल्म ‘अनुभव’ (1970) के संवाद लिखे और फिर ‘सवेरा’ (1972) और ‘आलिंगन’(1974) आई।
बताते हैं कि सागर सरहदी के लिखे नाटक ‘मिर्ज़ा साहिबा’ का तेजपाल ऑडिटोरियम में मंचन हो रहा था। सहायक रमेश तलवार के आग्रह पर यश चोपड़ा इस नाटक को देखने गए थे। नाटक खत्म होते ही उसके संवादों से अभिभूत यश चोपड़ा ने सागर सरहदी से पूछा कि ‘क्या आप मेरी अगली फिल्म लिखेंगे?’ और इस तरह ‘कभी-कभी’ के लेखन से सागर सरहदी यशराज फिल्म से जुड़ गए। ‘कभी-कभी’ की सफलता ने उनके लिए फिल्म कंपनियों के दरवाज़े खोल दिए। फिल्म लिखने के ऑफर बरसने लगे, लेकिन किफ़ायती मिजाज़ के सागर सरहदी ने उतनी ही फिल्मों के लिए हां कहा… जिनसे ‘वह भी भूखे ना रहें और दोस्त ना भूखे जाएं’। अधिक का लालच कभी रहा ही नहीं। यशराज फिल्म्स की ‘नूरी’ (1979), ‘सिलसिला’ (1981) और ‘चांदनी’ (1989) से सागर सरहदी फिल्म लेखन के सुपरिचित नाम हो गये।
इस प्रसिद्धि के बावजूद फिल्म इंडस्ट्री की चमक-दमक से दूर वे ज़िंदगी की सच्ची कहानियों और ख़बरों की तलाश में भटकते रहे। उनकी नज़र एक ख़बर ने खींची कि हैदराबाद के मां-बाप पैसों की खातिर अपनी बेटियों की शादी अरब अमीरों से कर देते हैं। इस ख़बर ने उन्हें इतना परेशान किया कि वह ख़ुद हैदराबाद जाकर संबंधित व्यक्तियों से मिले। एक ऐसी शादी में भी वे शामिल हुए। फर्स्ट हैंड जानकारी के आधार पर उन्होंने एक पटकथा लिखी और रिश्तो की ख़रीद-बिक्री को ‘बाज़ार’ नाम दिया।
तरसती आंखों से रस्ता किसी का देखेगा…
‘बाज़ार’ (1982) ने इतिहास रचा। उसके बाद की निर्देशित फिल्में ‘बाज़ार’ की तरह नहीं चल सकीं, जबकि उनमें भी उम्दा कलाकार और मर्मस्पर्शी कहानियां थीं। अपने सीधेपन में वे निर्माताओं और निवेशकों द्वारा ठगे गए। फिल्मों के लेखन से बटोरी जायदाद एक-एक कर बिक गई। वे फिल्म इंडस्ट्री के नामचीनों द्वारा भुला दिए गए। अंधेरी पश्चिम स्थित दफ़्तर में वे बिना नागा हर रोज आकर बैठते थे, जहां फिल्मों में लेखन और अभिनय के लिए संघर्षरत लेखक और कलाकार उनसे मिलते और हिम्मत बटोरते थे। उनके आसपास हमेशा नए और जवान प्रतिभाओं की भीड़ रही। वे नए से नए व्यक्ति के लिए भी हमेशा बेतकल्लुफ़ और मददगार रहे। हम सभी के पास उनकी यादों की निजी पूंजी है।
- अजय ब्रह्मात्मज
अजय ब्रह्मात्मज जाने-माने फिल्म पत्रकार हैं। पिछले 20 सालों से फिल्मों पर नियमित लेखन। 1999 से दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर जैसे प्रमुख अखबारों के साथ फ़िल्म और मनोरंजन पर पत्रकारिता। चवन्नी चैप (chavannichap.blogspot.com) नाम से ब्लॉग का संचालन। हिंदी सिनेमा की जातीय और सांस्कृतिक चेतना पर फिल्म फेस्टिवल, सेमिनार, गोष्ठी और बहसों में निरंतर सक्रियता। फिलहाल सिनेमाहौल यूट्यूब चैनल (youtube.com/c/CineMahaul) और लोकमत समाचार, संडे नवजीवन और न्यूज़ लांड्री हिंदी में लेखन।