- सुदीप सोहनी
- 10 June 2019
- 3270
इतिहास और मिथक की बड़ी रेखा खींचने वाले
गिरीश कर्नाड (19 मई 1938 – 10 जून 2019) को श्रद्धांजलि!
कुछ दिन पहले ही फ़ेसबुक पर दिल्ली थिएटर गाइड के पेज पर शेअर हुई एक डॉक्यूमेंट्री का लिंक सामने आया। उसमें तस्वीर गिरीश कर्नाड की थी। मतलब साफ़ था कि यह अपने समय के महान नाटककार की ज़िंदगी और उनके काम पर बनी फ़िल्म थी, जो कुछ 22 मिनट की थी। गिरीश कर्नाड की छवि को मन में बसाए और उन्हें याद करते, उनके काम से प्रेरणा पाते देश-दुनिया के चाहने वालों की तरह मैं भी यह लिंक देखकर रोमांच से भर उठा था जिसमें वे खुद अपने जीवन और काम के बारे में बात करते हुए नज़र आते हैं। मगर आम मानसिकता और भागदौड़ भरी ज़िंदगी में मैंने उस नोटिफिकेशन और लिंक को बस दिमाग में ही ‘सेव’ कर लिया इस आशय से कि कुछ देर बाद देखता हूँ। आज सुबह जब व्हट्सएप पर एक मैसेज में गिरीश कर्नाड के न रहने का समाचार पढ़ा और एक न्यूज़ चैनल की वेबसाइट पर जाकर ‘कन्फ़र्म’ किया तो सबसे पहले उस लिंक की याद आई। मुझे लगा असल ज़िंदगी में नहीं तो कम से कम उस लिंक और फ़िल्म में ही कर्नाड सशरीर ज़िंदा हैं। बोल रहे, बात कर रहे। ...और मैंने वो लिंक ढूंढ कर उसे देखना शुरू किया। वहाँ गिरीश कर्नाड अपने जन्म से लेकर बाक़ी की ज़िंदगी, किताबों, नाटक, सिनेमा और बच्चों-परिवार तक उन 20-22 मिनटों में बचपन, जवानी और बुढ़ापे की तसवीरों में अब भी चहल-कदमी कर रहे। यह दुर्भाग्य ही है कि मेरी तरह ही कई और प्रशंसक भी अपने समय की अजीम शख़्सियत, दुर्लभ नाटककार, सिने अभिनेता, निर्देशक, सांस्कृतिक प्रशासक और कई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित कर्नाड को प्रत्यक्ष देख-सुन न सके। एक-एक करके हम सब उनकी तसवीरों को ढूंढ-ढूंढ कर देख रहे, उनके इंटरव्यूज़ सुन रहे, मैसेज भेज रहे, समाचार पढ़ रहे, फ़िल्मों के दृश्य देख रहे । यह आज के समय की भयावह सच्चाई है जब हम किसी कलाकार को उसके जीते जी नहीं बल्कि मृत्यु के बाद उसे जीवित करने करने की कोशिश करते हैं।
गिरीश कर्नाड का न होना एक बड़े अर्थ में भारतीय सांस्कृतिक परिवेश से एक भरी-पूरी वैचारिक और कलात्मक उपस्थिति का न होना है। ख़ास तौर से रंगमंच में। हालांकि सिनेमा और टेलीविज़न में उनकी उपस्थिति और दखल भी अच्छा-ख़ासा है। मगर मुख्य रूप से कर्नाड बतौर नाटककार ही अपने समय की बड़ी उपलब्धि हैं। जिस तरह से आधुनिक समय में हबीब तनवीर, बी वी कारन्त, रतन थियाम और कावालम नारायण पणिक्कर भारतीय रंगमंच के प्रतिनिधि निर्देशकों में शामिल किए जाते हैं; उसी तरह लेखकों के प्रतिनिधि बतौर मोहन राकेश (हिन्दी), विजय तेंदुलकर (मराठी), बादल सरकार (बांग्ला) और गिरीश कर्नाड (कन्नड़) को भारतीय रंगमंच का आधुनिक इतिहास माना जाता है। इस प्रतिनिधि कड़ी में कर्नाड के चले जाने के बाद केवल थियाम ही बचे रह जाते हैं और इस तरह भारतीय रंगमंच के समृद्ध आधुनिक इतिहास की रिक्तता का अंदाज़ लगाया जा सकता है। ययाति, तुग़लक, हयवदन, अंजुमल्लिगे, हित्तिना हुंजा, नागमंडल, तल्लेदंड, अग्नि और बरखा उनके लिखे प्रसिद्ध नाटक हैं। साहित्य-रंगमंच में शीर्ष पर रहे कर्नाड सिनेमा में भी बतौर अभिनेता, लेखक, निर्देशक कन्नड़-हिन्दी फ़िल्मों में सक्रिय रहे।
कर्नाड और उनका बचपन, जहाँ से शुरू हुआ लेखन
सन 1938 में महाराष्ट्र के माथेरान में जन्मे कर्नाड के लेखकीय सफ़र की शुरुआत बचपन की स्मृतियों से होकर और फिर कर्नाटक में कॉलेज की पढ़ाई के बाद उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड जाने के दरमियान शुरू हुई। वे अपनी माँ की दूसरी शादी से हुई संतान थे जो पहले बाल-विधवा हो गई थीं। उस पर भी यह कि उनकी गर्भवती माँ उन्हें जन्म देना नहीं चाहती थीं। कर्नाड अपने जन्म की इस कहानी को और फिर बाद में परिवार सहित धारवाड़ में बस जाने की घटनाओं को अपने लेखकीय जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना मानते रहे। दरअसल, धारवाड़ में बसने के बाद वहाँ के सांस्कृतिक माहौल में रचे-बसे यक्षगान की परंपरा और माता-पिता की रंगमंचीय रुचियों ने उनके भीतर कला की संभावनाओं को पैदा किया। यक्षगान की सांगीतिक-कथात्मक नाटकीय शैली और प्रयुक्त होने वाली मिथकीय-पौराणिक कथाओं के रहस्य ने उनके भीतर बहुत बचपन में ही नाटक के बीज बो दिये थे। बाद में कॉलेज की पढ़ाई के दौरान इंग्लैंड जाने के लिए जब उनके पिता ने यह कहकर उनको रोकने की कोशिश की कहीं विदेश जा कर वे किसी अंग्रेज़ से शादी न कर लें या अन्य चीजों में न भटक जाएँ, तब गिरीश कर्नाड को लगा कि अपने सामाजिक रूढ़ियों-विचारों के लिए उनके पिता उनकी जवानी ही छीन लेने की कोशिश कर रहे थें। युवा अवस्था का यह स्वाभाविक विद्रोह स्वतः ही बचपन की सुनी हुई महाभारत की कहानी ‘ययाति’ तक उन्हें ले गया। और इस तरह अतीत और वर्तमान की जुगलबंदी में मिथकीय कहानी से ‘कनेक्ट’ होता उनका नाट्य-बोध उभरा जिसने कर्नाड को उनकी पहचान और लेखकीय दृष्टि दी। आगे चलकर कर्नाड ने इतिहास-मिथक-पुराण-नाट्य शैली-सांगीतिक ध्वनियों के साथ अपने लेखक को समृद्ध करते हुए अतीत-वर्तमान-भविष्य के रूप में असर करने वाला साहित्य रचा। यही कर्नाड के जीवन का वह बिन्दु है जिस पर हमें ठहरना चाहिए। गिरीश कर्नाड इसी कारण समूचे भारतीय नाट्य जगत के प्रतिनिधि रचनाकार बनते हैं जिसमें हमारी विरासत की महान परंपरा भी है और अतीत के आईने में खुलते वर्तमान के दृश्य भी। वे तीखे सवाल भी करते हैं, वस्तुस्थिति भी दर्शाते हैं और आगे के लिए चेतावनी भी देते हैं। उनके सभी नाटकों के कथानकों की मजबूत बुनियाद भी है, शैली के प्रयोग के लिए छूट भी और नाटक की अपेक्षा को पूरा करता विचार भी।
कर्नाड और उनके नाटक
उनके सभी नाटक शिल्प और कथ्य की वास्तविक ताक़त से भरे हैं जिसमें निर्देशक और अभिनेता के लिए हर बार भरपूर संभवना है। ‘ययाति’ में राजा ययाति की यौवन-लिप्सा, देवयानी और चित्रलेखा की प्रेमाकांक्षा, असुरकन्या शर्मिष्ठा का आत्मपीड़न, दमित इच्छाएँ, पुरू का शक्तिहीन भाव – ये सब मिलकर जीवन की ही तरह नाटक को बनाते हैं। इच्छाओं के भंवर में फँसते हुए ‘और, और’ की कामना में पिता का पुत्र से उसका यौवन मांग लेना, पिता का जवान होकर पुत्र का हज़ार वर्ष के लिए बूढ़ा होना अपने आप मे पौराणिक मिथक की नाटकीयता या ड्रामेटिक्स का चरम है। ‘तुग़लक’ के रूप में एक सनकी राजा और उसके कारनामों के इतिहास को तो सब जानते हैं मगर वास्तव में यह नाटक एक सनकी राजा के भीतर छुपे हुए मनुष्य का द्वंद्व ही है। नाटक विधा की ख़ासियत ही है कि वह अपने विचार से समय के हर हिस्से में अपनी जगह बनाता है और यही कर्नाड के ‘तुग़लक’ का सबसे मज़बूत पक्ष है। जिसे हम भले ही 13वीं-14वीं शताब्दी के ऐतिहासिक पात्र की तरह देखते हैं मगर वह अपने समय में भी हमें अलग-अलग जगहों पर नज़र आता है। ‘तुग़लक’ कर्नाड का लिखा वह नाटक साबित हुआ जिसने देशभर में उनके लेखन को भरपूर सम्मान और शोहरत दी। गहरे इतिहास बोध के साथ मनुष्य की इच्छाओं, संदेह और महत्त्वाकांक्षाओं, द्वंद्व की स्थितियों में घटनाओं के ज़रिये आने वाले समय में पड़ने वाले प्रभाव को जिस सूक्ष्मता और बारीक़ी से कर्नाड इस नाटक में देखते हैं वह कमाल है। कुछ इसी तरह लोककथाओं में रचे-बसे मनुष्य मन की संवेदनाओं और ख़ासकर स्त्री मन की दैहिक, मानसिक, चारित्रिक महत्त्वाकांक्षाओं को ‘हयवदन’ और ‘नागमंडल’ में कर्नाड ने उकेरा है। ये सभी नाटक शिल्प की दृष्टि से लोक-कलाओं और रंगमंच की युक्तियों से भरे पड़े हैं। साथ ही कथानक के बर्ताव को लेकर लेखकीय संपन्नता से भी भरे हैं। सभी नाटकों में पात्रों और कहानी के ज़रिये शुरुआत, मध्य और अंत में ड्रामेटिक्स, मैनरिज़्म, प्लॉट, तनाव, संतुलन, दृश्य संरचना, क्लाइमैक्स का जबर्दस्त संयोजन है।
लेखक का द्वंद्व, टकराहट और खोज
असल में गिरीश कर्नाड अपने लेखक को अपने व्यक्तित्व से अलग कर के नहीं देखते थे। इसलिए भी उनके नाटक उनके बचपन के मनोविज्ञान, स्मृति, सोच, अध्ययन से निकलकर आए हैं। विदेश में रहकर एक समय में वे इंग्लिश के ही कवि बनना चाहते थे। मगर वहाँ रहने के दौरान उनकी स्मृतियों में चलने वाले संशय ने उन्हें कन्नड़ में ही नाटक लिखने की प्रेरणा दी। जीवन और समय को अलग-अलग पक्षों से देखने की उनकी सोच ने आगे चलकर सच को ‘एज़ इट इज़’ कहने की ताक़त उन्हें दी जिसके कारण वे अपने अंतिम समय में राजनीतिक विरोधियों के निशाने पर भी रहे। और लेखक-अभिनेता से इतर एक्टिविस्ट के रूप में भी काम करते रहे।
कर्नाड और सिनेमा
कर्नाड अपने समय की वो शख़्सियत रहे हैं जिसमें उनका लिखना और बोलना दोनों ही महत्त्वपूर्ण रहे। इसके इतर उनके सिनेमाई पक्ष में भी कई महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। कन्नड़ लेखक यू आर अनंतमूर्ति के उपन्यास पर आधारित उनकी लिखी फ़िल्म ‘संस्कारा’ पहली कन्नड़ फ़िल्म थी जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार के रूप में राष्ट्रपति के स्वर्ण पदक से नवाज़ा गया। रंगमंच के अपनी मित्र बी वी कारन्त के साथ संयुक्त रूप से निर्देशित ‘वंश वृक्ष’ को राष्ट्रीय पुरस्कार के सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। हिन्दी सिनेमा में बतौर अभिनेता 'निशांत', 'मंथन', 'भूमिका', 'स्वामी', 'पुकार', 'इक़बाल' जैसी कई फ़िल्में हैं। वहीं ‘उत्सव’ और ‘गोधूलि’ जैसी फ़िल्में भी उनके निर्देशन में बनी कमाल की फ़िल्में हैं। टेलीविज़न पर दूरदर्शन के प्रसिद्द धारावाहिक ‘मालगुड़ी डेज़’ में स्वामी के पिता की उनकी भूमिका भी कईयों के ज़ेहन में होगी ही। सिनेमा से उनका जुड़ाव भारतीय फ़िल्म और टेलीविज़न संस्थान (एफटीआईआई) के डायरेक्टर के रूप में काम करने का भी रहा है। खासतौर पर ख्यात अभिनेता ओम पुरी के उस वक़्त के अभिनय कोर्स में एडमिशन के समय अपने चेहरे के कारण रिजेक्शन और फिर कर्नाड द्वारा ही उन्हें सिलेक्ट किए जाने का किस्सा भी मशहूर है।
विदा कर्नाड
दरअसल, गिरीश कर्नाड के भारतीय कला में योगदान को सही-सही चिन्हित कर पाना आसान नहीं। उसका फैलाव कला संस्कृति की योजनाओं, केरल और फिर केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी में योगदान, रंगमंच और सिनेमा में बतौर लेखक-अभिनेता-निर्देशक हस्तक्षेप, विचारक और एक्टिविस्ट के रूप में लगभग साठ सालों के लंबे और विस्तृत समय में गहरे तक पैठा है। गिरीश कर्नाड के जाने से अपने समय को देखने-परखने वाली एक महान परंपरा ख़त्म हुई है। उनका जाना हमारे सांस्कृतिक परिवेश से विचार और विजन का बड़ा शून्य है। सदियों से चला आ रहा मनुष्य समाज, उसकी इच्छाएँ, कलाएँ और विचार हमेशा ही बहते रहेंगे। लोग आते रहेंगे, रचते रहेंगे, जाते रहेंगे। अलविदा, गिरीश कर्नाड साहब। और शुक्रिया एक समृद्ध और विचारवान दुनिया हमें सौंपने के लिए।

फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे, से पटकथा-लेखन में स्नातक। लेखक, निर्देशक, कॉलमिस्ट, कवि, गायक, प्रशिक्षक, संपादक के रूप में सुदीप का कार्यक्षेत्र सिनेमा, नाटक, पत्रकारिता, कविता एवं आयोजनधर्मी के रूप में फैला है। भोपाल से प्रकाशित दैनिक ‘सुबह सवेरे’ में विश्व-सिनेमा पर साप्ताहिक कॉलम ‘सिनेमा के बहाने’ और इन्स्टाग्राम पर विशिष्ट गद्य लेखन के कारण भी पहचान।