- अजय ब्रह्मात्मज
- 08 July 2020
- 1113
"सिनेमा और साहित्य के बीच पुल नहीं बन पा रहा है।"
अजय ब्रह्मात्मज के सवाल, लेखकों के जवाब: अशोक मिश्र
- जन्मस्थान
बिलासपुर,छत्तीसगढ़।
- जन्मतिथि
24 जून,1953
- शिक्षा-दीक्षा
एमए (समाजशास्त्र), रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर और एनएसडी स्नातक (1982), दिल्ली।
- लेखन प्रशिक्षण और अभ्यास?
घर में साहित्यिक वातावरण रहा। मेरे बड़े भाई राजेंद्र मिश्र हिंदी आलोचक हैं। घर में साहित्यकारों का बहुत आना-जाना रहा। भाई साहब सभी को घर बुलाते थे खाने पर। 10वीं-11वीं में व्यंग्य लिखने लगा था। नाटक भी लिखा। रंगमंच में सक्रिय रहा।
- मुंबई कब पहुंचे?
1987 में मुंबई आ गया। एनएसडी से निकलने पर कुछ सालों तक दिल्ली में ही फ्रीलांसिंग करता रहा। वहां मॉडर्न स्कूल में ड्रामा पढ़ाता था। मुझे जिस प्रिसिपल ने नौकरी दी थी, उनके रिटायर होने के बाद जो प्रिंसिपल बने वे मुझे पसंद नहीं करते थे। वहां से हट गया। दिल्ली क्लॉथ मिल में शाम में थिएटर करने लगा था। मिल बंद हो गया। तब दिल्ली छोड़नी पड़ी।
- कहानी लिखने का विचार कैसे आया? पहली कहानी कब लिखी थी? वह कहीं छपी थी या कोई और उपयोग हुआ था?
नौवीं कक्षा में ही मैंने घोस्ट नावेल लिखना शुरू किया था। रात में लिखता था। अचानक मुझे अपने नावेल से डर लगने लगा तो अधूरा छोड़ दिया। फिर कवितायेँ लिखने लगा और व्यंग्य भी लिखे। एनएसडी में आने पर फाइनल साल में पहला नाटक ‘बजे ढिंढोरा उर्फ़ खून का रंग’ लिखा। उसका मंचन किया दिल्ली में। वह हिट ड्रामा रहा। यह 1983-84 की बात है। ‘सड़क’ और ‘गाँधी चौक’ ड्रामा लिखा। अभी तक इसके 2500 शो हो चुके हैं। उस पर एक फिल्म भी बन रही है।
- आरंभिक दिनों में किस लेखक ने प्रभावित लिया? कोई कहानी या रचना, जिसका ज़बरदस्त असर रहा?
सबसे ज़्यादा शेक्सपियर ने प्रभावित किया। हाई स्कूल में मैंने उनके नाटकों के हिंदी अनुवाद पढ़ लिए थे। मेरे पिता जिला शिक्षा अधिकारी थे। उनके पास किताबें आती थीं, वे ही ले आये थे। मैंने उनके आधे से ज्यादा नाटक मैंने पढ़ लिए। वहीं से ड्रामा और संवाद की समझ बढ़ी। बाद में हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के संपर्क में आया।
- आप का पहला लेखन जिस पर कोई फिल्म, टीवी शो या कोई और कार्यक्रम बना हो?
पहली फिल्म बासु चटर्जी की ‘दुर्गा’ थी। उसी के साथ श्याम बेनेगल का ‘भारत एक खोज’ भी लिख रहा था।
- ज़िन्दगी के कैसे अनुभवों से आप के चरित्र बनते और प्रभावित होते हैं?
मैं ख़ुद को निम्न वर्ग का मानता हूँ। मेरी संवेदना उसी वर्ग की है। मेरे स्वभाव में श्रमिक और मज़दूर से निकटता है। अच्छा साहित्य वहीं से आता है। उच्च वर्ग मुझे प्रभावित नहीं करता। कभी उन पर फिल्म लिखनी पड़े तो असहज हो जाता हूँ।
- चरित्र गढ़ने की प्रक्रिया पर कुछ बताएं?
सत्य घटनाओं पर रिसर्च करके लिखना मुझे ज़्यादा पसंद है। ‘बवंडर’ लिखने से पहले भंवरी देवी से मिलने गया था। उनके साथ रहा। उन्हें सुना। ‘समर’ लिखते समय अत्याचार करने वाले और जिनके ऊपर अत्याचार हुआ, उन दोनों से मिला।
- क्या आप अपने चरित्रों की जीवनी भी लिखते हैं?
उनका एक बायोडैटा बनाता हूँ। उनकी कुंडली रहती है। आंतरिक और बाह्य रूप लिख लेता हूँ। फिर उसे एक्सप्लोर करने में मदद मिलती है।
- अपने चरित्रों के साथ आप का इमोशनल रिश्ता कैसा होता है?
लिखते समय तो होता ही है। हमारे किरदार जीवित हो उठते हैं। उनके साथ हँसना और रोना होता है। फिर आनंद आता है।
- क्या कभी आप के चरित्र ख़ुद ही बोलने लगते हैं?
जी हाँ, उनके बोलने-बताने से हंसी और रुलाई आती है। ‘वैलकम टू सज्जनपुर’ में ट्रेन पर चढ़ाने आया नायक ख़ुद ही बोलने लगा था। मैंने उसे ही लिख दिया।
- क्या किरदारों की भाषा अलग-अलग होनी चाहिए?
बिलकुल होनी चाहिए। एक ही गाँव के लोगों की भाषा एक हो सकती है, लेकिन उनमें भी भेद होगा। हमारे देश की सामाजिक संरचना ऐसी है कि किसी भी कहानी में भिन्न प्रान्तों और भाषाओं के किरदार आते हैं। पाकिस्तानी टीवी नाटकों में यह खूबी साफ़ दिखती है।
- संवाद लिखना कितना आसान या मुश्किल होता है?
कई बार हम अपनी जुबान लिखने लगते हैं। फिर संघर्ष होता है ख़ुद से। उसके बाद किरदार की भाषा लानी पड़ती है। कहानी की घटनाएं जानते हों तो संवाद आसानी से लिख सकते हैं।
- दिन के किस समय लिखना सबसे ज़्यादा पसंद है? कोई ख़ास जगह है घर में? फिल्म लिखने के लिए कभी शहर भी छोड़ा है?
मैं इसमें यकीन नहीं करता। मैंने अपनी अच्छी फ़िल्में पीएमजीपी कॉलोनी के वन रूम किचन के फ्लैट में लिखी है। वहीं खाना बनता था। मेरा बेटा गर्दन पर बैठ जाता था। मैंने कभी लोनावाला या गोवा जाने की मांग नहीं की। वह मुझे क़ैद की तरह लगता है। मैं अपने घर और परिवेश में ही लिखना पसंद करता हूँ। घर में कोई जगह फिक्स नहीं है। किसी भी समय लिख लेता हूँ। अभी 11 बजे के बाद लिखता हूँ।
- कभी राइटर ब्लाक से गुजरना पड़ा? ऐसी हालत में क्या करते हैं?
मेरे पास ग़ालिब और मीर के दीवान हैं। मैं फंसता हूँ तो उन्हें पढ़ता हूँ। कोई न कोई ख्याल आ जाता है। यह चमत्कार होता रहता है। आजकल बेटा यशोवर्द्धन मिश्रा मेरी मदद करता है, पत्नी भी मदद करती हैं।
- लेखकों के बारे कौन सी धारणा बिल्कुल ग़लत है?
कि लेखक आलसी होते हैं। लेखक आलसी नहीं होते हैं। उन पर दवाब नहीं डालना चाहिए। उसे क्रिएटिव स्पेस और समय देना चाहिए।
- लेखक होने का सबसे बड़ा लाभ क्या है?
यह सुकून मिलता है कि भगवान की तरह मैंने एक दुनिया रची है। मां का सुख भी मिलता है।
- फिल्म के कितने ड्राफ्ट्स तैयार करते हैं?
निश्चित नहीं है। निर्देशक पर निर्भर करता है। जिनके साथ ट्यूनिंग अच्छी है, उनके साथ दो-तीन ड्राफ्ट में काम हो जाता है। जो निर्देशक ख़ुद स्पष्ट नहीं होते, उनके साथ तो मशक्कत करनी पड़ती है। श्याम बेनेगल लेखक का वक़्त बर्बाद नहीं करते।
- अपने लेखन करियर की अभी तक की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या मानते हैं?
अभी तक के लेखन में ‘वैलकम टू सज्जनपुर’ की वजह से ज्यादा लोग जानते हैं। मुझे खुद ‘समर’ में संतुष्टि मिली थी। ‘नसीम’ भी अच्छी थी।
- कई बार कलाकार दृश्य और संवादों में बदलाव करते हैं। क्या यह उचित है?
कलाकार और निर्देशक समझदार हो तो बदलाव से अच्छे परिणाम मिलते हैं। अगर वे समझदार नहीं हैं तो ख़राब कर देते है। ओम पुरी और बोमन ईरानी कोई शब्द भी बदलने के पहले पांच बार पूछते हैं।
- कहा जाता है लेखन एकाकी काम है। अपने अनुभव बताएं।
एकाकी काम है। और अकेले ही लिखने का काम है। मैं मिल कर नहीं लिख पाता। कभी निर्देशक की मदद मिल जाती है।
- आप के आदर्श लेखक कौन हैं?
फिल्मों में राही मासूम रज़ा अच्छे लगते रहे हैं। गुलज़ार और जावेद अख़्तर की राइटिंग पसंद है। शमा ज़ैदी का मुरीद हूँ। नयी पीढ़ी में जूही चतुर्वेदी ने प्रभावित किया है। वरुण ग्रोवर और अतुल तिवारी भी पसंद हैं।
- लेखकों की स्थिति में किस बदलाव की तत्काल ज़रुरत है?
क़द्र और पारश्रमिक बढ़े। वैब सीरीज से उन्हें महत्व मिला है। मुझे लगता है कि निर्देशकों को लेखकों की मदद लेनी चाहिए।
- साहित्य और सिनेमा के रिश्तों पर क्या कहेंगे?
प्रगाढ़ होना चाहिए। हमारा दुर्भाग्य है कि सिनेमा के लोगों ने साहित्य नहीं पढ़ा है और साहित्यकारों का सिनेमा से कोई संबंध नहीं है। दोनों के बीच पुल नहीं बन पा रहा है। यह रिश्ता अच्छा होना चाहिए।
- क्या लेखकों को उचित पारिश्रमिक मिल पा रहा है?
इधर वैब सीरीज की वजह से बढ़ा है। सिनेमा में तो नहीं है। वहां शोषित हैं। बाकी तकनीकी टीम को लेखकों से ज़्यादा मिलता है।
- इन दिनों क्या लिख रहे हैं?
वैब सीरीज पर काम कर रहा हूँ। एक की मंज़ूरी मिल गयी है। और एक नया डैवेलप कर रहा हूँ। अपने नाटक ‘गाँधी चौक’ पर एक युवा निर्देशक के लिए फिल्म लिख रहा हूँ।
- लॉकडाउन में कुछ लिख पाए क्या?
मैं कवितायें लिखता रहा। एक नाटक शुरू किया है। उसमें कोरोना से भी डील कर रहा हूँ।
- फिल्म लेखन में आने के इच्छुक प्रतिभाओं को क्या सुझाव देंगे?
साहित्य पढ़ कर आयें। समकालीन कवितायें पढ़ कर आयें। फ़िल्में देखें। स्क्रीनप्ले की समझ बढ़ाएं, किताबें बहुत सारी आ गयी हैं। ड्रामा लिख कर आयें तो बहुत अच्छा। पढ़-लिख कर आयें। काम मिलने पर पढ़ने का वक़्त नहीं मिलेगा। तैयारी कर के आयें।
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अजय ब्रह्मात्मज जाने-माने फिल्म पत्रकार हैं। पिछले 20 सालों से फिल्मों पर नियमित लेखन। 1999 से दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर जैसे प्रमुख अखबारों के साथ फ़िल्म और मनोरंजन पर पत्रकारिता। चवन्नी चैप (chavannichap.blogspot.com) नाम से ब्लॉग का संचालन। हिंदी सिनेमा की जातीय और सांस्कृतिक चेतना पर फिल्म फेस्टिवल, सेमिनार, गोष्ठी और बहसों में निरंतर सक्रियता। फिलहाल सिनेमाहौल यूट्यूब चैनल (youtube.com/c/CineMahaul) और लोकमत समाचार, संडे नवजीवन और न्यूज़ लांड्री हिंदी में लेखन।