- अजय ब्रह्मात्मज
- 29 May 2020
- 1128
"अब संवाद लेखन डायलागबजी नहीं रह गया है।"
अजय ब्रह्मात्मज के सवाल, लेखकों के जवाब: संजय मासूम
इस नयी श्रृंखला में वरिष्ठ सिने पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज फिल्म और टीवी जगत के लेखकों से चुनिंदा सवाल करेंगे और उनके जवाब आप तक पहुचायेंगे। आप अगर इस स्तम्भ में किसी सिनेमा या टीवी लेखक के जवाब पढ़ना चाहें तो हमें contact@swaindia.org पर ईमेल भेजकर नाम सुझाएँ।
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संगीत सिवान की फिल्म ‘जोर’ से हिंदी फिल्मों के संवाद लेखन में आये संजय मासूम ने राकेश रोशन की ‘कृष’ भी लिखी है। रितिक रोशन अभिनीत ‘काबिल’ के संवाद भी संजय ने लिखे थे। तुषार हीरानंदानी की फिल्म ‘सांड की आँख’ में वे स्क्रिप्ट सलाहकार थे।
- जन्मस्थान
बालापुर,गाजीपुर,उत्तर प्रदेश
- जन्मतिथि
5 अगस्त 1965
- शिक्षा-दीक्षा
बनारस और इलाहबाद
- लेखन प्रशिक्षण और अभ्यास
संपादकों के नाम पत्र से लेखन की शुरुआत। छपा नाम देख कर अच्छा लगा। सोहबत और संगत में शायरी शुरू कर दी। फिर लेखन में आ गया।
- मुंबई कब पहुंचे?
फरवरी1990 में। धर्मयुग पत्रिका में उपसंपादक बन कर आया था।
- कहानी लिखने का विचार कैसे आया? पहली कहानी कब लिखी थी? वह कहीं छपी थी या कोई और उपयोग हुआ था?
मैंने मुख्य रूप से संवाद लिखे हैं। कहानियां भी लिखी हैं छिटपुट रूप से. लेखन का अभ्यास धर्मयुग में हुआ।
- आरंभिक दिनों में किस लेखक ने प्रभावित लिया? कोई कहानी या रचना,जिसका जबरदस्त असर रहा?
मुझ पर राही मासूम रज़ा का बहुत प्रभाव रहा। वे गाजीपुर के ही थे। दिलदारनगर के रहने वाले थे। उनका उपन्यास ‘आधा गाँव’ है। फिल्मों में उनके संवाद लेखन से बहुत प्रभावित था। परदे पर 'संवाद डॉ. राही मासूम रज़ा' देखकर प्रेरित हुआ था कि ऐसा ही मेरा भी नाम आये - 'संवाद संजय मासूम'।
- पहली फिल्म या नाटक या कोई शो,जिसकी कहानी ने सम्मोहित कर लिया?
काफी कहानियों और नाटकों का सम्मोहन रहा है। ‘वेटिंग फॉर गोदो’ नाटक के असर में काफी समय तक रहा।
- आप का पहला लेखन जिस पर कोई फिल्म,टीवी शो या कोई और कार्यक्रम बना हो?
पहली फिल्म संगीत सिवान की ‘जोर’ थी, जिसके हीरो सनी देओल थे। उसके संवाद लिखे थे मैंने।
- ज़िन्दगी के कैसे अनुभवों से आप के चरित्र बनते और प्रभावित होते हैं?
चरित्र ज़िन्दगी के अनुभवों से ही आते हैं। अच्छा लेखक ज़िन्दगी को ज्यादा बारीकी से समझता है। ज़िन्दगी ही चरित्रों को ज़िन्दगी देती है।
- चरित्र गढ़ने की प्रक्रिया पर कुछ बताएं?
कहानी जहन में आते ही किरदार भी आकार लेने लगते हैं। उनकी धुंधली आकृति रहती है। फिर हम परिवेश और परवरिश के बारे में सोचते हैं तो वे स्पष्ट होते जाते हैं। शौक, खूबी, कमी, तेवर, भाषा आदि से चरित्र की आकृति जाहिर होती है।
- क्या आप अपने चरित्रों की जीवनी भी लिखते हैं?
बिलकुल,जीवनी बहुत ज़रूरी होती है। जीवनी नहीं होगी तो हम ही नहीं समझ पाएंगे। परदे पर जितना हिस्सा किसी किरदार का दिखता है, लेखक उससे अधिक जानता है। कोई उम्दा कलाकार उस चरित्र को निभा रहा हो तो वह भी जीवनी जानना चाहता है।
- अपने चरित्रों के साथ आप का इमोशनल रिश्ता कैसा होता है?
बहुत ज्यादा होता है। संवाद लेखन,कहानी हो या पटकथा हो... चरित्रों से लेखक का ही पहला इमोशनल रिश्ता बनता है। वह इतना गहरा होता है की कभी-कभी बहुत तकलीफ होती है, जब फिल्म परदे पर बन कर आती है, और वह हमारी सोच के अनुकूल नहीं होता या ख़राब हो जाता है। चरित्रों से हमारी बातें होती हैं।
- क्या कभी आप के चरित्र खुद ही बोलने लगते हैं?
कई बार ऐसा होता है। किसी चरित्र पर लगतार काम कर रहे होते हैं तो एक बिंदु पर वह खुद ही बोलने लगता है। ऐसा जब होता है तो बेहद ख़ुशी मिलती है।
- क्या किरदारों की भाषा अलग-अलग होनी चाहिए?
बिलकुल होनी चाहिए। संवाद लेखक के लिए यह बड़ी चुनौती होती है। आम ज़िन्दगी में भी सभी के बोलने का तरीका अलग होता है। वह फिल्म में दिखना चाहिए।
- संवाद लिखना कितना आसान या मुश्किल होता है?
कुछ भी अच्छा लिखना मुश्किल होता है। कुछ भी लिख देना तो आसान होता है। मैं जब से लिख रहा हूँ, उतने समय में ही बदलाव आ गया है। अब संवाद लेखन डायलॉगबाज़ी नहीं रह गया है। पहले इसका चलन था। अभी तो वह संवाद ही नहीं लगना चाहिए।
- दिन के किस समय लिखना सबसे ज्यादा पसंद है? कोई खास जगह घर में? फिल्म लिखने के लिए कभी शहर भी छोड़ा है?
घर में मेरा एक कोना है। वह मेरे बेडरूम में है। एक माहौल बना रखा है। पेड़-पौधे लगा रखे है। मैं दिन में एक बजे से लिखना शुरू करता हूँ। एक से तीन बजे तक लिखता हूँ। रात में नौ बजे से ग्यारह बजे तक लिखता हूँ। पूरे दिन में चार घंटे आम तौर पर। बाहर जाकर नहीं लिखता... अब वह वक़्त नहीं रह गया है। पहले होटल बुक होते थे। मैं तो शोर के बीच भी लिख लेता हूँ। अलबत्ता ‘कृष’ लिखते समय राकेश रोशन जी ने मुझे जबरदस्ती खंडाला भेजा था।
- कभी राइटर ब्लॉक से गुजरना पड़ा? ऐसी हालत में क्या करते हैं?
हर लेखक राइटर ब्लॉक से गुजरता है। कभी कभी ऐसा होता है कि पंक्तियाँ नहीं मिल पाती हैं। सही शब्द नहीं मिल पा रहे हैं। फिर मैं लिखना बंद कर देता हूँ, कोई फिल्म देखता हूँ। पढता हूँ। शायरी करता हूँ। चार-पांच दिनों में सब ठीक हो जाता है।
- लेखकों के बारे कौन सी धारणा बिल्कुल गलत है?
एक गलत धारणा है कि फिल्म लेखक बहुत पैसा कमाते हैं। लिखने के लिए उन्हें मनोरम जगह चाहिए होती है। हम भी आम लेखक की तरह ही होते हैं।
- लेखक होने का सबसे बड़ा लाभ क्या है?
अभी के लॉकडाउन में ढेर सारे लोग बौखला रहे हैं, लेकिन लेखक के लिए यह कोई नयी बात नहीं है। हम तो घर से ही काम करते है। मैं अभी एन्जॉय कर रहा हूँ।
- फिल्म के कितने ड्राफ्ट्स तैयार करते हैं?
यह फिल्म के डायरेक्टर पर निर्भर करता है। डायरेक्टर के साथ ट्युनिंग हो तो जल्दी हो जाता है। मैंने अधिकतम तीन ड्राफ्ट लिखे हैं।
- अपने लेखन करियर की अभी तक की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या मानते हैं?
कुछ ऐसी फ़िल्में लिख पाया जो दर्शकों को हंसा और रोमांचित कर सकीं। देश के दर्शकों को एक भाव से प्रभावित कर पाना उपलब्धि है।
- कई बार कलाकार दृश्य और संवादों में बदलाव करते हैं। क्या यह उचित है?
उचित तो नहीं है। मेरे डायरेक्टर भी इसे सही नहीं मानते हैं। हम पहले ही हर दृश्य और पंक्ति पर काम कर चुके होते हैं कि सारे विकल्प सोच चुके होते है। कभी कोई कलाकार बदलने की बात करता है तो ज्यादती लगती है। कभी अच्छा सुझाव मिल जाए तो अच्छा भी लगता है।
- लेखन एकाकी काम है...अपने अनुभव बताएं।
भयंकर एकाकी काम है। शब्दों और चरित्रों की दुनिया में ही रहना होता है।
- लेखकों की स्थिति में किस बदलाव की तत्काल ज़रुरत है?
आर्थिक पक्ष सुदृढ़ हो। लॉकडाउन में लेखक भी परेशान हैं। स्थापित लेखकों को भी आगे आना होगा।
- साहित्य और सिनेमा के रिश्तों पर क्या कहेंगे?
यह रिश्ता ज़रूरी है। हिंदी में यह रिश्ता कमज़ोर है। हमें साहित्य खंगालना चाहिये। अभी इसकी सम्भावना बढ़ गयी है।
- फिल्म के एक्टर और तकनीशियन को कन्वेयेंस मिलता है। सुना है लेखकों को नहीं दिया जाता...क्या कहेंगे?
मुझे तो मिलता था। अभी सुना है कि इसमें कटौती हुई है। मिलना चाहिए लेखकों को।
- इन दिनों क्या लिख रहे हैं? लॉकडाउन में कुछ लिख पाए क्या?
कुछ ग़ज़लें कहीं हैं। एक फिल्म है, जिसका काम चल रहा है। अभी वह रुका हुआ है। उसका क्लाइमेक्स लिखना बाकी है। लेखन अभी पॉज़ मोड पर है। लॉकडाउन पर एक शार्ट फिल्म बनायीं।

अजय ब्रह्मात्मज जाने-माने फिल्म पत्रकार हैं। पिछले 20 सालों से फिल्मों पर नियमित लेखन। 1999 से दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर जैसे प्रमुख अखबारों के साथ फ़िल्म और मनोरंजन पर पत्रकारिता। चवन्नी चैप (chavannichap.blogspot.com) नाम से ब्लॉग का संचालन। हिंदी सिनेमा की जातीय और सांस्कृतिक चेतना पर फिल्म फेस्टिवल, सेमिनार, गोष्ठी और बहसों में निरंतर सक्रियता। फिलहाल सिनेमाहौल यूट्यूब चैनल (youtube.com/c/CineMahaul) और लोकमत समाचार, संडे नवजीवन और न्यूज़ लांड्री हिंदी में लेखन।